Tuesday, August 17, 2010

वो तो बीमारी में भी मुस्कुराहट दे गया...

कुछ दिन पहले मुझे आसमान बहुत बीमार सा दिखा, पूरा बदन नीला पड़ा हुआ था। ठीक वैसे ही जैसे सलफास खाने के बाद हम इनसानों का होता है। बादल जल्दी-जल्दी उसपर सफेेद पट्टियां रख रहे थे। गाढ़ी गाढ़ी और बड़ी बड़ी पट्टियां देखकर बार-बार लग रहा था कि कहीं आसमान को कुछ गम्भीर बीमारी तो नहीं हो गई। हवा भी जोर-जोर से इधर से उधर भाग रही थी मानो प्रकृति ने किसी बहुत ही दुर्लभ औषधि को लाने का काम सौंपा हो और हवा उसे खोज न पा रही हो। कभी वो मेरे दरवाजे से भीतर घुसकर कुछ खोजकर वापस लौट जाती तो कभी खिड़की से अंदर झांककर ही फुर्र हो जाती। मुझसे आसमान, बादलों और हवा की ये बेचैनी देखी नहीं जा रही थी। मन हुआ कि चलो बाहर चलकर देखते हैं कि आखिर माजरा क्या है। बाहर निकलकर देखा तो दूर देशों के बादल भी तेजी में हवा के साथ भागे चले आ रहे थे।

आसमान में दूर तक नजरें दौड़ाईं तो एक भी पंछी उससे खेलता नजर नहीं आया। अब तो मैं और भी सशंकित हो गया कि आखिर आसमान को हुआ क्या है। इस दौरान कभी उसका नीलापन हल्का पड़ता तो कभी गाढ़ा होने लगता। समझ नहीं आया कि उसे आखिर क्या बीमारी है जो हर कुछ दिन बाद उभर आती है। कुछ देर तक इस भागदौड़ को यूं ही देखता रहा, इस उम्मीद में कि जल्दी से कोई वैद्य बढ़िया सी औषधि लेकर आ जाए और आसमान के इस मर्ज का इलाज कर दे। अब तक आसमान का दर्द मानो मेरे शरीर में उतर चुका था, हवाओं और बादलों की बेचैनी भी मुझमें आ चुकी थी।


कुछ देर बाद मैं फिर निकला तो देखा कि बादल गुस्से में हैं और उन्होंने सूरज की रोशनी का रास्ता रोक दिया मानो धरती पर मौजूद हम इनसानों से कह रहे हों कि अगर तुम लोगों ने हम पर सितम जारी रखा तो हम ये रोशनी हमेशा के लिए रोक देंगे। तभी पास की छत पर एक परिवार दिखाई दिया। उनके चेहरे पर अजीब सी खुशी थी। बच्चे दोनों हाथ ऐसे फैलाए हुए थे मानो वो आसमान को गले लगाना चाहते हों, उस हवा को अपनी मुठ्ठी में कैद कर लेना चाहते हों, उन बादलों की सवारी करना चाहते हों जो आकाश में फैली हजारों तरंगों के बेतरतीब जाल के बीच से निकलकर खुद भी कई हिस्सों में कटे जा रहे थे। अब तक सूरज भी परदेस जाने की तैयारी करने लगा। तभी अलग अलग दिशाओं से कुछ और बादल आते दिखे। मेरा डर और भी बढ़ गया।


आसमान का नीलापन अब सफेद पट्टी से भरने लगा था। कहीं हल्की तो कहीं गाढ़ी गाढ़ी। ये परदेसी बादल कभी करीब आते तो कभी दूर जाते और फिर करीब आते और आपस में कुछ फुसफुसा कर अपनी अपनी जगह ले लेते। शायद वो एक दूसरे को इनसानों की हरकतें बता रहे थे। शायद वो बता रहे थे कि हर तरफ जश्न मनाया जा रहा है। वो एक दूसरे को बता रहे थे कि किस तरह हम धरती वाले चौपाटी, नरीमन प्वांइट, कनॉट प्लेस, इंडिया गेट के सामने जमा होकर आसमान के इस दर्द पर जश्न मना रहे हैं। इसीलिए आसमान में बादल कभी उदास चेहरे सी शक्ल में नजर आते तो कभी उनके माथे की त्योरियां कस जातीं।


इतने में हवा और भी तेज हो गई। उसने कई दरवाजे खटखटाए, कई खिड़कियों पर दस्तक दी, सड़कों पर इधर-उधर भागी भगी फिरी। कारों में, बसों में ट्रेनों में, हर जगह उसने लोगों को हिलाया मानो वो सबसे मदद मांग रही हो। मगर सबने अपने मुंह फेर लिए और शीशे चढ़ा लिए और हवा उन चेहरांें और शीशों से बार-बार टकराने के बाद निराश लौट गई। वो मेरे पास भी दोबारा आई। इस बार मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर पूछना चाहा...


इतनी परेशान क्यों हो...उसने मेरे चेहरे पर जोर से झाोंका माराजानता हूं नाराज हो पर ये तो...मैं...फिर वो पीछे निकल गई मेरे कमरे मेंमदद कर सकता हूं....पीछे से धक्का देकर वो दरवाजे को जोर से झटकते हुए बाहर निकल गईमैं उसके पीछे भागा...अरे सुनो, सुनो, सुनो तो सही...बाहर निकला तो पैरों के नीचे कुछ गीला सा महसूस कियावो रो रही थी...आसमान की हालत और भी नाजुक हो गई थी।


उपर देखा तो आसमान का नीलापन और गहरा रहा था और अब उसमें कालापन झलक रहा था। पट्टियां भी काली पड़ने लगी थीं। मैं भी अपने आंसूं दबाए किसी चमत्कार का इंतजार कर रहा था। मेरी भी उम्मीद कम होने लगीं। लोगों की खुशियां देखकर फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं और तेज और गहरा हो गया। युवा भी सिगरेट के छल्ले बनाकर आसमान को भेजने लगे और मन ही मन खुश होने लगे इस सो कॉल्ड खुशगवार मौसम में।


अब आसमान का सब्र टूट गया शायद...मैं उपर देख ही रहा था कि मेरी आंख में एक मोटी सी बूंद आकर गिरी और मेरा आंसू बन गई। धीरे-धीरे ये आंसू तेज होने लगे। हवा भी कहीं थमकर सिसकियां भरने लगी, इन आंसुओं में खुद को पागल की तरह भिगोने लगी और शोक मनाने लगी। मैंने अपनी बालकनी से गुंजरते उसे पकड़ने की एक और कोशिश की मगर हाथ लगे उसके चंद आंसूं...मेरे भी आंसू आसमान के आंसुओं में घुल मिल गए। रात भर आसमान, बादल और हवाएं रोती रहीं, बरसती रहीं, भिगोती रहीं धरती को, सींचती रहीं धरती को। रोकर भी प्रकृति के हम दुश्मनों को मुस्कुराहट देती रहीं।


मैं भी आंसू सुखाकर सो गया। सुबह उठकर देखा तो आसमान पर बादल फिर हल्की हल्की मरहम पट्टी करके अपने अपने वतन लौट रहे थे...निराश से...ये सोचते हुए कि कल उनका आसमान भी यूं ही रोएगा और दुनिया जश्न मनाएगी...फिर उनमें से एक बादल सहसा खुश हुआ मानो वह कह रहा हो कि हम बीमार होकर भी उनको मुस्कुराहट दे गए...वो हमारा दर्द न समझे भी तो क्या...पर मैं क्या करता, मैं तो अरबों में एक चींटी से भी अदना ठहरा। काश इस दर्द को करोड़ों ने महसूस किया होता, लेकिन ये सच नहीं, जानता हूं, इसीलिए मुगालते नहीं पालता, पूरी कायनात के आंसू किसी को नहीं दिखे तो मेरी कहानी क्या खाक दुनिया बदल देगी।

1 comment:

Jyoti Verma said...

सच में इस आसमान के दर्द को हर कोई समझ सकता. क्यों हम अपने लिए अपनी प्रकृति के साथ अन्याय कर रहे है. सुन्दर पोस्ट! क्या कहे ? बस बरबस ही सोचने पर मजबूर हो गए. शायद बहुत ग़लत कर रहे है हम.....

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