Monday, January 25, 2010

सुभाष से मुलाक़ात...

सुभाष चन्द्र बोस. दरअसल यह वो नाम है जो बचपन से ही मुझसे जुडा हुआ है. छोटा सा था जब सीतापुर के मुजहना गाँव गया था पिता जी के साथ. एक अंकल भी थे, विश्वबंधु तिवारी, आजाद हिंद फौज से जुडी किसी संस्था की देख रेख कर रहे थे. वहां एक मौनी बाबा के पास हम लोग अक्सर जाया करते थे. पिता जीने उनसे दीक्षा ली थी. हमारा पूरा परिवार अपने दर्द की पोटली वहां जाकर खोल देता था. एक टट्टर में बंद एक लम्बा चौड़ा साधू हाथों से कुछ इशारे करता था और बाहर बैठे महंत जी उसका अनुवाद करते थे. हम सभी बड़े आश्चर्य चकित होते थे कि आखिर ये कैसे संभव है, पर आस्था के सामने सवाल कहाँ टिक पाते हैं. विश्वबंधु अंकल अक्सर कहते थे कि मौनी बाबा ही सुभाष चन्द्र बोस हैं. मैं भी हमेशा एक सवाल करता कि अगर ये सुभाष चन्द्र बोस हैं तो ये भगवन कैसे हो सकते हैं. पर फिर आस्था के सामने मेरा सवाल बौना पड़ जाता था. कई ऐसी बातें भी थीं जो सोचने पर मजबूर कर देती थीं. पिता जी की नाव का बाढ़ में खुद किनारे पर लग जाना. पूरे गाँव में पानी ही पानी पर आश्रम के चारों ओर से घाघरा मैया का अन्दर न आना. ऐसी कई बातें. हमारी गाड़ी का आधी टेढ़ी होकर गिरना, ये सब बातें मुझे आज तक समझ में नहीं आई. मैंने तर्क देने की भी कोशिश भी की पर साइंस भी मेरे तर्क को सही नहीं ठहरा पता था. पिता जी के साथ के कुछ और लोग भी बार-बार इसी बात पर जोर देते थे कि वही सुभाष हैं. कई बार आश्रम में जो जंगल कह लीजिये या गाँव के बीचोंबीच था इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश भी हुई पर मौनी बाबा जिन्हें हम भगवन कहते थे, हँस के बात टाल देते. कई बार तो मीडिया वाले भी वहां पहुंचे. वो उन्हें इशारों इशारों में ही डांट देते और कहते कि जो मुझे सुभाष कहते हैं वे पागल हैं. लेकिन उनकी तस्वीर और सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर मिलाने पर लगता था कि ये वही हैं. उन दिनों उनके बारे में खूब पढता था, जब भी उनकी चर्चा हो, झट से आगे पहुँच जाता था, अपने दोस्तों से भी कहता था कि मैं सुभाष चन्द्र बोस से मिला हूँ. पर वो मजाक बनाते. उस दौरान पता चला कि कोई फैजाबाद के बाबा हैं उन्हें भी लोग सुभाष चन्द्र बोस कहते हैं. किसी ने बताया कि मौनी बाबा ही पहले अयोध्या में रहते थे. कुछ भी हो, कुछ तो था उनमें. कुछ चमत्कारिक. कोई माने या माने, मैं मानता हूँ. वो मुझे हमेशा याद करते थे, कोई भी यहाँ से जाता, वो उससे मेरे बारे में जरुर पूछते. मुझे भी जब भी डर लगता, मैं उन्हें ही अपने पास महसूस करता. कुछ साल पहले उन्होंने शरीर छोड़ दिया. महंत आज भी वहां हैं. तब से सिर्फ एक बार वहां गया. आज वो वैसा नहीं है जैसा पहले था. वो उर्जा भी नहीं महसूस होती. शायद वो सुभाष नहीं थे पर मैंने हमेशा उन्हें वही दर्जा दिया. उनसे वही उर्जा लेने की कोशिश की.
सुभाष आज भी एक पहेली हैं, कम से कम मेरे लिए. मेरे लिए वो कभी नहीं मरे. वो हमेशा मेरे पास हैं. आज भी उनसे एकांत में बातें करता हूँ. मैं खुद में उन्हें बसाना चाहता हूँ. उनसा कुछ करना है. उनसा बनना है. देश को एक खूबसूरत सुबह से रू रू कराना है.
आमीन!

1 comment:

Udan Tashtari said...

आमीन!

अच्छा आलेख!

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